Sunday 25 September 2011

शब्द मोल...... !

मैं शब्द बेचने निकल पड़ा....

बचपन से सुनता आया था,
मैं शब्द-देश का राजकुंवर 
मैं भाव गगन का तारकेश,
अक्षरगिरि  का  उत्तुंग शिखर 
कंटकाकीर्ण  सिंहासन का,
मैं छत्र बेचने निकल पड़ा....
मैं शब्द बेचने निकल पड़ा....

बरसों से देख रहा था मैं,
घर की हर सुबह उदास उगी 
हर एक दोपहर आंगन में,
जठराग्नि सूर्य से तेज तपी  
चौके के चूल्हे को मैंने, 
जब सिसक-सिसक रोते देखा....
मैं शब्द बेचने निकल पड़ा...

मन  के तहख़ाने के भीतर,
जब ह्रदय कोठरी में पंहुचा 
संभ्रांत अतीत किवाड़ो पर,
यश की मजबूत कड़ी देखी
दर के ललाट पर लटका था,
बेदाग़ विरासत का ताला..
पुर्खों के नाम गुदे देखे,
पीढ़ियों की लाज जड़ी देखी

अनुभव की कुंजी से मैंने,
जीवन कपाट ज्यों ही खोले-
कैसा अनमोल खज़ाना था !
कितना नवीन कितना चेतन,
कल तक मृतप्राय पुराना था !

रंग बिरंगे शब्दों से,
थी ह्रदय कोठरी भरी पड़ी 
कुछ मुक्त,वयक्त,उपयुक्त शब्द,
शब्दों की कुछ संयुक्त लड़ी

कुछ शब्द दिखे ऐसे मुझको,
तदभव-तत्सम में उलझ रहे..
कुछ शब्द शूरवीरो के थे,
हीरे मोती से चमक रहे 

कंकड़ पत्थर जैसे कठोर,
कैकेयी  वचन पड़े देखे 
सीते-सीते कहकर फिरते,
कुछ 'राम शब्द' रोते देखे

चोरी का माखन टपक रहा,
कुछ शब्द तोतले भी देखे 
झूठे मद में दिख रहे घने, 
कुछ शब्द खोखले भी देखे..

दायें कोने इक शब्द ढेर,
यूँ ही देखा चलते-चलते 
पाषाण शब्द के भार तले,
कुछ दबे शब्द आहें भरते 

दो-तीन थैलियो में भरकर, 
मैं शब्द बेचने निकल पड़ा...

ज्यों ही बज़ार जा कर बैठा,
इक प्रेमी युगल निकट आया 
बोला-कुछ शब्द मुझे दे दो,
जिस पल मैं प्रेम मगन होकर
इसकी आँखों में खो जाता
कुछ होश नही रहता अपना,
प्रेयसी से कुछ ना कह पाता
हे शब्द देश के सौदागर,
कुछ प्रेम शब्द मुझको दे दो !

दो शब्द उसे मैंने बेचे-
इक 'त्याग' और इक 'निष्छलता'

यह सदा स्मरण रखना तुम,
ये त्याग प्रेम की सरिता है
निष्छल होकर तुम मौन सही,
हर सांस तुम्हारी कविता है..

इस लोकतंत्र के अभिकर्ता,
इक थैला लेकर आ पहुंचे 
बोले दो शब्द भरो इसमें-
'आश्वासन',केवल 'आश्वासन'

मैं बोला-अब वह दौर नही,
जब आश्वासन ले जाओगे 
दायित्व बराबर ही लोगे,
तब ही आश्वासन पाओगे

इक शब्द मुफ़्त देकर बोला-
यह 'कर्मदंड' कहलाता हैं 
अब तक वह प्राणी नही हुआ,
जो भी इससे बच पाता हैं !

इक तथाकथित कवि भी आये,
बोले कुछ शब्द तुरत दे दो,
इक कविसम्मलेन जाना हैं

मैंने पूछा इतनी जल्दी,
कैसे कविता रच पाओगे ?
तुलसी,कबीर,मीरा,दिनकर,
के क्या वंशज कहलाओगे ?

वह बोला-समय क़ीमती हैं, 
अब क्या कविता और क्या रचना 
शब्दों का घालमेल बिकता,
झूठे रस की आदी रसना

कुछ शब्द तौल तो दिए उसे,
इक शब्द साथ दे कर बोला-
कविताई जो भी तुम जानो,
पर कविवर याद इसे रखना 
यह शब्द 'संस्कृति' कहलाता, 
बस इसकी लाज नही तजना !

सामर्थ्य ज़रूरत के माफ़िक,.
लोगो ने शब्द ख़रीद लिए 
उस शब्द आवरण के भीतर,
सबने अपने हित छिपा लिए 

निर्धन ने आशा और कृपा,
धनवानों ने धन शब्द लिया 
नारी ने त्याग,प्यार लेकर,
आँचल में जगत समेट लिया 

ज़्यादातर लोगो को देखा,
वे लोभ ईर्ष्या लेते थे
दुर्बुद्धि कुछ ऐसे भी थे,
जो  निष्ठुर हिंसा लेते थे !

जब साँझ हुई घर को लौटा,
बस तीन शब्द अवशेष रहे-

पहला 'श्रृद्धा' कहलाता हैं-
गुरु और मात-पितु को अर्पण 

इस 'गर्व' शब्द से करता हूँ-
मैं राष्ट्र शहीदों का तर्पण 

तीजा यह 'सागर' भावों का,
प्रियतमा तुम्हारा रहे सदा 
रिश्तो और जन्मो से असीम,
ये प्रेम हमारा रहे सदा..

जीवन के इस घटनाक्रम पर,
इक प्रश्न मेरे मन में उठता
इस मोल-तोल की दुनिया में,
अनमोल नही कुछ क्यों रहता 

सपनो के बाज़ारुपन में,
क्योंकर कोई परमार्थ मिले ?
'शब्दों को अर्थ नही मिलता,
शब्दों से केवल अर्थ मिले'





46 comments:

  1. वैदिक युग से कलियुग की चिर
    यात्रा में प्लावित शब्द विन्दु /
    छलकता मिला सागर पल पल
    सच शब्द शब्द में मिला सिन्धु

    sunar rachnaa `saagar,

    ReplyDelete
  2. क्या बात है।
    सागर जी आपके शब्दों का यह रूप मन को भा गया।

    सादर

    ReplyDelete
  3. तुलसी,कबीर,मीरा,दिनकर,
    के वंशज कहलाओगे----
    सागर जी !
    बहुत बढ़िया ||
    बधाई ||

    ReplyDelete
  4. शब्द-शब्द जोड़ कर आपने शब्दों से 'सागर' को भर दिया....
    सब ही कह दिया शब्दों में आपने... हम सबको निशब्द कर दिया......

    ReplyDelete
  5. सपनो के बाज़ारुपन में,
    क्योंकर कोई परमार्थ मिले ?
    'शब्दों को अर्थ नही मिलता,
    शब्दों से केवल अर्थ मिले'

    .....बहुत खूब ! भावों का बहुत सुन्दर, सटीक और प्रभावी सम्प्रेषण..बधाई

    ReplyDelete
  6. क्या शब्दों की जादूगरी है! अद्भुत!

    ReplyDelete
  7. बहुत सुन्दर भाव और शब्दों का अद्भुत प्रभावी रुप...

    ReplyDelete
  8. शब्दों को बहुत गहनता से प्रयुक्त किया है ..बहुत सुन्दर रचना

    ReplyDelete
  9. बचपन से सुनता आया था,
    मैं शब्द-देश का राजकुंवर
    मैं भाव गगन का तारकेश,
    अक्षरगिरि का उत्तुंग शिखर
    कंटकाकीर्ण सिंहासन का,
    मैं छत्र बेचने निकल पड़ा....
    मैं शब्द बेचने निकल पड़ा....
    beauuuuuuuuuuuuuutiful

    ReplyDelete
  10. यह सदा स्मरण रखना तुम,
    ये त्याग प्रेम की सरिता है
    निष्छल होकर तुम मौन सही,
    हर सांस तुम्हारी कविता है..
    बहुत ही गहरी कविता …………एक प्रश्न उठाती है और सोचने को विवश करती है।

    ReplyDelete
  11. बहुत ही खूबसूरत और अर्थपूर्ण रचना |

    ReplyDelete
  12. गहन अभिव्यक्ति ..

    ReplyDelete
  13. बहुत सुन्दर रचना.... अद्भुत भाव/शब्द संयोजन....
    सादर...

    ReplyDelete
  14. तुम शब्द-देश के राजकुँवर
    हो या शब्दों के जादूगर
    बस शब्दों से नि;शब्द किया
    शब्दों का फूँक दिया मंतर.

    अनुपम, अद्भुत, अवर्णनीय.......

    ReplyDelete




  15. आपको सपरिवार
    नवरात्रि पर्व की बधाई और शुभकामनाएं-मंगलकामनाएं !

    -राजेन्द्र स्वर्णकार

    ReplyDelete
  16. सपनो के बाज़ारुपन में,
    क्योंकर कोई परमार्थ मिले ?
    'शब्दों को अर्थ नही मिलता,
    शब्दों से केवल अर्थ मिले'

    बहुत ही अच्‍छा लिखा है आपने ... इस बेहतरीन अभिव्‍यक्ति के लिये बधाई ।

    ReplyDelete
  17. बहुत प्यारी रचना |बधाई मेरे ब्लॉग पर आने के लिए आभार |
    आशा

    ReplyDelete
  18. अनुभव की कुंजी से मैंने,
    जीवन कपाट ज्यों ही खोले-
    कैसा अनमोल खज़ाना था !
    कितना नवीन कितना चेतन,
    कल तक मृतप्राय पुराना था !

    अद्भुत! बहुत ही सुन्दर एवं सार्थक लेखन ....
    बहुत सुन्दर लिखा है आपने ! गहरे भाव और अभिव्यक्ति के साथ ज़बरदस्त प्रस्तुति!

    ReplyDelete
  19. wah bahut khoob.....nishabd kar diya apne..

    ReplyDelete
  20. शब्‍दों का बेहतरीन इस्‍तेमाल।
    वाह।
    शुभकामनाएं....

    आभार.....

    ReplyDelete
  21. शब्‍दों का बेहतरीन इस्‍तेमाल।
    वाह।
    शुभकामनाएं....

    आभार.....

    ReplyDelete
  22. शब्‍दों का बेहतरीन इस्‍तेमाल।
    वाह।
    शुभकामनाएं....

    आभार.....

    ReplyDelete
  23. शब्‍दों का बेहतरीन इस्‍तेमाल।
    वाह।
    शुभकामनाएं....

    आभार.....

    ReplyDelete
  24. कुछ मुक्त,वयक्त,उपयुक्त शब्द,
    शब्दों की कुछ संयुक्त लड़ी

    यह सदा स्मरण रखना तुम,
    ये त्याग प्रेम की सरिता है
    निष्छल होकर तुम मौन सही,
    हर सांस तुम्हारी कविता है..


    जग जाहिर हो गया कि आप शब्द देश के सामराज्य को संभाले हुए हैं ...आभार इस सुन्दर गीत के लिए

    ReplyDelete
  25. सागर आप सच में भावों के अथाह सागर हो !
    बहुत सुंदर लगी आपकी रचना !

    ReplyDelete
  26. भाई सागर जी बहुत सुंदर कविता आपको बधाई और शुभकामनायें

    ReplyDelete
  27. यह सदा स्मरण रखना तुम,
    ये त्याग प्रेम की सरिता है
    निष्छल होकर तुम मौन सही,
    हर सांस तुम्हारी कविता है..
    बहुत ही गहरी कविता.......


    Vaaaaaaaaaaaaaaaaaaah ! shabdon ke saudagar ne man moh liya. badhai.

    ReplyDelete
  28. प्रभावी रचना के लिए आभार.

    ReplyDelete
  29. निष्छल होकर तुम मौन सही,
    हर सांस तुम्हारी कविता है..
    बेहद सुन्दर!
    शब्द को विषय बनाकर आपने कई सत्य बड़ी सुन्दरता से व्यक्त किये हैं.... रचना बेहद प्रभावशाली है....
    बार बार पढ़े जाने को आमंत्रित करता प्रभावशाली शब्द वृतांत!

    ReplyDelete
  30. बहुत अच्छी रचना,बहुत ही अच्छे भाव,बधाई!

    ReplyDelete
  31. क्या बात है सागर जी, वाक़ई आब बहुत सुंदर लिखते है।बहुत अच्छी भावपूर्ण सार्थक रचना।
    समय मिले तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
    http://mhare-anubhav.blogspot.com/

    ReplyDelete
  32. सागर जी,भावपूर्ण सुंदर रचना लिखने की बधाई स्वीकार करे,आपकी ये प्रभावी मुझे बहुत ही अच्छी लगी,मैंने भी 'शब्द,पर एक रचना लिखी
    है पसंद आयेगी,आपको अपने ब्लॉग में आने के लिए आमंत्रित करता हूँ,धन्यबाद......

    ReplyDelete
  33. सागर जी बहुत सुन्दर भाव लिए सुन्दर शैली में रची ये मनमोहक रचना मन को छू गयी
    वे तीन शब्द मन को छू के
    ज्यों पुष्प चढ़े जा चरणों में
    माँ पिता को ऐसा स्नेह मिले
    राहों में फूल निछावर हों
    हर वीर शहीद यशश्वी हों
    हम गर्व से मन में उन्हें बसा
    सब प्यार लुटा दें बादल सा
    प्रीतम प्रिय हों मन सांसों में
    जीवन बन सुरभित रग रग हों
    हर दिन शुभ हो रंग बिरंगा
    करवा चौथ सा अनुपम क्षण हों
    भ्रमर ५

    ReplyDelete
  34. Behtareen Sagarji...Adhbhut....

    www.poeticprakash.com

    ReplyDelete
  35. सुन्दर भाव .....
    सुन्दर शैली ........

    ReplyDelete
  36. मन के तहख़ाने के भीतर,
    जब ह्रदय कोठरी में पंहुचा uniqe expression.thanks.

    ReplyDelete
  37. आपको गोवर्धन व अन्नकूट पर्व की हार्दिक मंगल कामनाएं,

    ReplyDelete
  38. गंभीर कविता... समय का खाका खिंचा है आपने .. दिवाली की हार्दिक शुभकामना !

    ReplyDelete
  39. पुन:- सागर की अगली लहर का इंतिजार है>

    ReplyDelete
  40. बहुत सुन्दर भावपूर्ण कविता.. अगली पोस्ट का इंतज़ार है.
    मेरे नए पोस्ट पर आयें.

    www.belovedlife-santosh.blogspot.com

    ReplyDelete
  41. कुछ शब्द दिखे ऐसे मुझको,
    तदभव-तत्सम में उलझ रहे..
    कुछ शब्द शूरवीरो के थे,
    हीरे मोती से चमक रहे......
    apki poori kavita kisi khazane se kam nahin hai......ekdam chakit hoon.......wah.

    ReplyDelete
  42. bahut hi mohak bahut hi sundar ...no words for saying .....so nice

    ReplyDelete