और तुम ख़ामोश थी..
दूब पर बिखरे हुए मोती हज़ारों ओस के
मौन स्वीकृति दे रहे थे प्रेम को मानो हमारे
भोर की लाली खिलाती गुनगुनी सी रश्मियाँ सब,
अर्घ पहला दे रही आलिंगनो को थी तुम्हारे
मैं हमेशा की तरह ही बोलता था जा रहा
पूछता तुमसे कभी कुछ,और तुमको देखता
और तुम ख़ामोश थी.....
मौन स्वीकृति दे रहे थे प्रेम को मानो हमारे
भोर की लाली खिलाती गुनगुनी सी रश्मियाँ सब,
अर्घ पहला दे रही आलिंगनो को थी तुम्हारे
पक्षियों के पुंज चिंतित,चहकते सब पूछते थे
आहलादित सुबह में,इस मौन का औचित्य क्या है?
आहलादित सुबह में,इस मौन का औचित्य क्या है?
प्रणय में यह वेदना क्यों.....?
और तुम ख़ामोश थी.....
गीत गाते झूमते जब सामने कुछ कृषक गुज़रे
याद है तुमको हमें वो देख कर चुप हो गए थे,
और वो मृग युगल भी जो झील में था खेलता,
देख कर मानव युगल कुछ खिन्न जैसे हो रहे थे,
दरअसल हर रूप में थी,प्रकृति तुमसे पूछती
प्रीति के संगीत में इस शांति का अभिप्राय क्या है?
मिलन में व्यवधान क्यों.........?
और तुम ख़ामोश थी.....
दोपहर जब तप रहा था सूर्य चारों ओर से,
अंक में लेटी हुई तुम शांत सब सुनती रहीं
चित्त भूला जा रहा था सहज जीवन मार्ग अपना,
और तुम चुपचाप लेटी,पथ नया चुनती रही,
और संशय छाँव में,मैं स्वयं से था पूछता
और संशय छाँव में,मैं स्वयं से था पूछता
प्रेम की भागीरथी में जब नही पावन हुए
अग्नि फेरे और कुमकुम स्वांग का औचित्य क्या है?
व्यर्थ का यह योग क्यों........?
और तुम ख़ामोश थी.....
सायं की बेला निकट,सब पथिक घर को लौटते
पक्षियों के झुण्ड,वापस घोसलों को उड़ चले
और तुमने मौन तोड़ा बोलकर दो शब्द यह-
"आज का यह दिवस अंतिम साथ अपने प्रेम का"
और पूरे दिवस की हर बात पर बस यह कहा-
"क्यों तुम्हारे प्रश्न का उत्तर भला मैं दूँ तुम्हे?"
और वह जो शाल ख़ामोशी की ओढ़े सुबह से
मेरे कांधे पर ओढ़ा कर,और फिर तुम चल दिए
और फिर तुम चल दिए,निस्वार्थ से निर्लिप्त से
और मैं तकता रहा निर्मूल सा,निष्प्राण सा
और सहमी झील अपने पाश में थी सिमटती
और सहमी झील अपने पाश में थी सिमटती
और दोनों हरिण रोते भागते थे हर तरफ़
और पथिको ने कभी वह रास्ता फिर न चुना
और तब से आज तक वह पेड़ निष्फल ही रहा
और तब से आज तक वह पेड़ निष्फल ही रहा
और तब से दूब का तिनका नही उगता वहां
प्रेम अमृत या गरल मैं आज तक समझा नही
प्रेम की प्रत्यक्ष परिणत बस यही दिखती मुझे-
"मंदिरों की घंटियों सी गूंजती हो आज तुम
उस दिवस की यंत्रणा पर प्रकृति का ऐसा रुदन !
और हम थे,रत्न "सागर" में सदा निर्धन रहेप्रेम अमृत या गरल मैं आज तक समझा नही
प्रेम की प्रत्यक्ष परिणत बस यही दिखती मुझे-
"मंदिरों की घंटियों सी गूंजती हो आज तुम
मौलवी के हाथ की तस्बीह सा ख़ामोश मैं"
मौलवी के हाथ की तस्बीह सा......................
बहुत ही बढ़िया।
ReplyDeleteसादर
सागर जी आपकी रचना सिर्फ रचना ही नही... भावनाओं का वह गहरा "सागर" है जिसकी गहराई तक पहुचने का साहस सिर्फ "सागर"यानि आप ही कर सकते है....
ReplyDeleteमासूम, प्यारा सा खूबसूरत प्यार का इज़हार.....
ReplyDeleteबहुत बढ़िया ...
ReplyDeleteऔर तुमने मौन तोड़ा बोलकर दो शब्द यह-
ReplyDelete"आज का यह दिवस अंतिम साथ अपने प्रेम का"
और पूरे दिवस की हर बात पर बस यह कहा-
"क्यों तुम्हारे प्रश्न का उत्तर भला मैं दूँ तुम्हे?"
स्वार्थ ||
दिल के टुकड़े हजार ||
शानदार प्रस्तुति |
बधाई सागर ||
गीत गाते झूमते जब सामने कुछ कृषक गुज़रे
ReplyDeleteयाद है तुमको हमें वो देख कर चुप हो गए थे,
और वो मृग युगल भी जो झील में था खेलता,
देख कर मानव युगल कुछ खिन्न जैसे हो रहे थे,
दरअसल हर रूप में थी,प्रकृति तुमसे पूछती
प्रीति के संगीत में इस शांति का अभिप्राय क्या है?
मिलन में व्यवधान क्यों.........?
और तुम ख़ामोश थी.....
bahut khoob
खूबसूरत रचना , बहुत सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteभावों की बहुत ख़ूबसूरत अभिव्यक्ति..
ReplyDeleteदिल को छू गयी..सागर भाई ये रचना...बहुत ही सुन्दर.... संवेदनायें बोल रही है इस रचना में..
ReplyDeletelajawab prastuti hai aur shbd sanyojan jabardast kamaal ka hai....doob gaye apke shabd chitran me.
ReplyDeleteek jabardast rachna.
सागर जी,आपने तो हमें खामोश ही कर दिया.क्या दृश्य,क्या भाव,क्या गहराई,शब्द चयन -एक चमत्कार.आदि और अंत का जो प्लॉट ढूँढ कर लाये हैं -सृजन वहीं से अंकुरित हुआ है.कई बार पढ़ गया,मन नहीं भरा.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भावों से ओत प्रोत रचना ...
ReplyDeleteउम्दा .. लाजवाब
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और भावपूर्ण प्रस्तुति |
ReplyDeleteआशा
"मंदिरों की घंटियों सी गूंजती हो आज तुम
ReplyDeleteमौलवी के हाथ की तस्बीह सा ख़ामोश मै
कमाल का काव्य है....
सादर बधाई...
बहुत सारे एहसासों को एक साथ पिरो दिया
ReplyDeleteसुन्दर रचना के लिए बधाई
प्रेम की प्रत्यक्ष परिणत बस यही दिखती मुझे-
ReplyDelete"मंदिरों की घंटियों सी गूंजती हो आज तुम
मौलवी के हाथ की तस्बीह सा ख़ामोश मैं"
बहुत सुन्दर एवं मर्मस्पर्शी रचना ! हार्दिक शुभकामनायें !
sagar ji
ReplyDeletehar bar ki tarah is baar bhi ek nai duniya me le gaye aur ant ne to khamosh kar diya.
"मंदिरों की घंटियों सी गूंजती हो आज तुम
ReplyDeleteमौलवी के हाथ की तस्बीह सा ख़ामोश मैं "
बहुत खूबसूरत.........
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteबेशक वह खामोश थी लेकिन उस ख़ामोशी को आपने बहुत सुंदर शब्दों में अभिव्यक्त किया ...आपका आभार
ReplyDeleteफेसबुक पर निवेदिता से दोस्ती यहाँ तक ले आई...ख़ामोशी के बोल , उसके भाव बेहद खूबसूरत लगे....
ReplyDeleteसुन्दरता से अभिव्यक्त किया है
ReplyDeleteबेहतर अभिव्यक्ति ...
ReplyDeleteaur tum khamosh thi.
ReplyDeletebhut sundr n mnbhavn.
आपको अग्रिम हिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं. हमारी "मातृ भाषा" का दिन है तो आज से हम संकल्प करें की हम हमेशा इसकी मान रखेंगें...
ReplyDeleteआप भी मेरे ब्लाग पर आये और मुझे अपने ब्लागर साथी बनने का मौका दे मुझे ज्वाइन करके या फालो करके आप निचे लिंक में क्लिक करके मेरे ब्लाग्स में पहुच जायेंगे जरुर आये और मेरे रचना पर अपने स्नेह जरुर दर्शाए...
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दिल छु लेने वाली रचना.
ReplyDeleteबहुत खूब ... दिल में उतर गारी आपकी रचना सागर साहब ...
ReplyDeleteभावों की बहुत ख़ूबसूरत अभिव्यक्ति|
ReplyDeleteबहुत अच्छा लिखा ,
ReplyDeleteबात कह रहे थे नैन जब , तब शब्दों का क्या स्थान होता ,
व्यक्त कर रही थी बात धडकन ,फिर क्यों शब्दों से कुछ बयान होता
एक इसी आस में शायद वो बैठी मौन थी
सागरजी आपका गीत अद्भुत है । लय शब्द भाव और प्रवाह--सबका संयोजन बहुत ही खूबसूरत है ।
ReplyDeleteसुंदर गीत....
ReplyDeleteमंदिरों की घंटियों सी गूंजती हो आज तुम
मौलवी के हाथ की तस्बीह सा ख़ामोश मैं"---क्या बात है
kamaal kar diya sir apne to.....maa kasam, jajbaat jaga diye
ReplyDeleteअद्भुत है आपका ये संयोजन,
ReplyDeleteबधाई,
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
बहुत सुन्दर और भावपूर्ण प्रस्तुति |
ReplyDeleteभावनाओं का अद्भुत संगम है यह अभिव्यक्ति ...।
ReplyDeleteखूबसूरत कविता भाई सागर जी बधाई और शुभकामनाएं
ReplyDeleteबढ़िया रचना सागर जी | बधाई |
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग में भी आयें-
**मेरी कविता**
♥
ReplyDeleteप्रिय भाई आशीष अवस्थी 'सागर'जी
सादर सस्नेहाभिवादन !
आहाऽऽह ! बहुत भावप्रवण रचना है …
सायं की बेला निकट,सब पथिक घर को लौटते
पक्षियों के झुण्ड,वापस घोंसलों को उड़ चले
और तुमने मौन तोड़ा बोलकर दो शब्द यह-
"आज का यह दिवस अंतिम साथ अपने प्रेम का"
और पूरे दिवस की हर बात पर बस यह कहा-
"क्यों तुम्हारे प्रश्न का उत्तर भला मैं दूं तुम्हे?"
अधिक न कह कर बस यही कहूंगा
'सागर' !
तू प्यार का सागर है … तेरी हर कविता के प्यासे हम !
:)))))
♥ हार्दिक शुभकामनाएं !♥
- राजेन्द्र स्वर्णकार
बहुत ही सुन्दर.
ReplyDeletewahh..
ReplyDeletedil ko chhu lenewali rachana
bahut hi acchi kavita hai...
सागर जी...क्या खूब लिखा है आपने...लाजवाब....क्या नहीं है इस प्रेम काव्य में....एक ही क्षण में मिलन है,विरह है...सबकुछ....बहुत ही सुंदरता से और बहुत ही सुंदर तरीके से काव्य सृजन किया है आपने....शूभकामनाएं...बधाईयाँ।
ReplyDeletelagbhag meri jindagi ka haqiqat hai... kavita sach mein achhi hai... bas iska length mujhe jyada laga...
ReplyDeletenice work great,
ReplyDeletewelocme to my blog www.utkarsh-meyar.blogspot.com