Wednesday, 20 July 2011

एक पाती.... जो भावो के सागर से बह शब्दों के बाजार में उतर गयी....!!!

यह दिवस बहुत अनमोल प्रिय,
अब इंतज़ार सब खत्म हुये,
तुम चयन करो इक पथ नवीन,
जीवन के लिखों गीत नये..
ऐ-मेरे जीवन की पलाश,
मेरी सांसो की परछाई,
इक नन्ही सी गुङिया बन कर,
इस दिन तुम धरती पर आई....!

पल याद आ रहा वो मुझको,
जब मुझसे पहली बार मिली,
वो शोखीपन वह अल्हङपन,
चिङियो सी चहकी खिलीखिली, 
और वो भी दिन जब जिद करके,
मुझसे क्या- क्या थी कहलाती,
अपने अंतर के भावोँ को
मेरी ज़ुबान से बतलाती...!

पर उलझा रहता हूँ इसमे,
क्या मै बस इक पङाव ही था?
तुम परिवर्तन की धारा थी,
मै इक पल का बदलाव ही था?
मै जैसा था,
मै जो भी था,
पहले तुमने स्वीकार किया,
फिर क्यू शर्तो औ' तर्को से,
उन भावो से इंकार किया...!

ये सोच रही होगी अब तुम,
इक मर्यादा की देवी हो?
तुम कर्मभूमि की गीता हो?
तुम मात-पिता की वेदी पर जल 
जाने वाली सीता हो?
हो सकता हैं,
तुम सच भी हो, 
पर प्राणप्रिये यह भी सच हैं,
तुम अब विवाहित नही रहीं...!

तुम देख रहीं जो आँखोँ से,
वो सारे सपने मेरे हैं
तुम सात कदम जो साथ चली,
वो सात जनम के फेरे हैं,
जो लहू टपकता आँखोँ से,
वो मांग तुम्हारी भरता हैं,
उस माथे की बिँदी का कुमकुम,
मेरे होठोँ पर मिलता हैं,
तेरे हाथोँ पर चटक चढ़ीं,
मेरे हाथोँ की रेखायेँ,
तेरे कदमोँ  से छप जाती,
मेरे जीवन की आशायेँ....!

तुम जाति-धर्म,
रस्मो-रिवाज,
और ऊँच-नीच समझाती अब?
प्रियतमा नये सांचे मेँ क्यू,
बीते कल को पिघलाती अब?

तुमने क्या त्याग किया मेरा,
अब मै तुमसे अंजाना हूँ,
अब नया जनम यह हैं तेरा,
अब मै बीता अफसाना हूँ....!

आजाद तुम्हे करता अब मै,
अब जाओ डोली मेँ बैठो,
जा कर इक नया रुप ले लो,
तुम अब परिणय मेँ बँध सकती,
अब तुम "परिणीता" नही रहीं....!!

7 comments:

  1. बहुत खुबसूरत.. हर शब्द जैसे अभी बोल उठंगे... हर एहसास, हर भावो, जहाँ तक कवि पहुँच सकता है ... उससे भी कही दूर तक जा कर आपने..... इस रचना को रच दिया है... !!

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  2. बेहद खूबसूरत रचना है.
    ------------
    कल 19/07/2011 को आपकी एक पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  3. तुम देख रहीं जो आँखोँ से,
    वो सारे सपने मेरे हैं,
    तुम सात कदम जो साथ चली,
    वो सात जनम के फेरे हैं,
    जो लहू टपकता आँखोँ से,
    वो मांग तुम्हारी भरता हैं,
    उस माथे की बिँदी का कुमकुम,
    मेरे होठोँ पर मिलता हैं,
    तेरे हाथोँ पर चटक चढ़ीं,
    मेरे हाथोँ की रेखायेँ,
    तेरे कदमोँ से छप जाती,
    मेरे जीवन की आशायेँ....!
    बहुत भावपूर्ण .ह्रदय की गहराइयों को छूती रचना.बधाई आशीष जी

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  4. बहुत सुंदर कविता बधाई भाई सागर जी

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  5. कोमल अहसासों से परिपूर्ण एक बहुत ही भावभीनी रचना जो मन को गहराई तक छू गयी ! बहुत सुन्दर एवं भावपूर्ण प्रस्तुति ! बधाई एवं शुभकामनायें !

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  6. मुझे आपका ब्लोग बहुत अच्छा लगा ! आप बहुत ही सुन्दर लिखते है !

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  7. सागर जी ! नि:शब्द कर दिया आपने. अब तो आपकी सभी पुरानी पोस्ट पढ़नी ही पड़ेगी.सागर जैसी ही रचना है , जिसकी हर लहर में नवीनता दिखी. गहराई भी,हिलोरें भी,ज्वार-भाटा और दावानल भी.
    वाह ! वाह !! वाह !!!

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