बाद मुद्दत के अपना घर देखा
इक महल था,जो खंडहर देखा
ढूँढने पर भी न मिला कोई लौटने का निशाँ
सिर्फ़ रुख़सत को बना था,वो रहगुज़र देखा
मुफ़लिसी में भी जिसे भूखा न रखा माँ ने
कुँए के पास ख़ामोश गड़ा था,वो पत्थर देखा
जो बन सका न हमारे इश्क़ की सलामती का सबब
पीर बाबा की मज़ार का वो जंतर देखा
नाम-ए- महबूब पर मिटते हुए आशिक़ देखे
दिल की दुनिया को लूटता भी हमसफ़र देखा
किसके आग़ोश में आख़िर कोई महफूज़ रहे
कारवां लूटते हाफिज़ को ही अक्सर देखा
बहुत सुना था वहां कोई गहरा सा "सागर" बहता
गया,तो प्यास से मरता हुआ पोखर देखा
behtreen gajal,, kamal kar diya....
ReplyDeletejai hind jai bharat
किसके आग़ोश में आखिर कोई महफूज़ रहे
ReplyDeleteकारवां लूटते हाफिज़ को ही अक्सर देखा.!
बहुत बढ़िया गजल रची है आपने।
सादर
मुफ़लिसी में भी जिसे भूखा न रखा माँ ने
ReplyDeleteकुँए के पास ख़ामोश गड़ा था वो पत्थर देखा.!
बेहतरीन गजल
बेहतरीन गजल ...
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत गज़ल
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर गज़ल ..सार्थक भाव के साथ ..बधाई..
ReplyDeleteबहुत बहुत बधाई ||
ReplyDeleteजो बन सका न हमारे इश्क़ की सलामती का सबब
ReplyDeleteपीर बाबा की मज़ार का वो जंतर देखा
...बहुत खूबसूरत गज़ल!
किसके आग़ोश में आख़िर कोई महफूज़ रहे
ReplyDeleteकारवां लूटते हाफिज़ को ही अक्सर देखा ...
बहुत खूब ... लाजवाब शेर है ... हकीकत बयान कर दी है आपने ..
मुफ़लिसी में भी जिसे भूखा न रखा माँ ने
ReplyDeleteकुँए के पास ख़ामोश गड़ा था,वो पत्थर देखा
बहुत सुंदर...
सागर जी, आनंद आ गया आपकी गजल पढकर। बधाई स्वीकारें।
ReplyDelete.......
प्रेम एक दलदल है..
’चोंच में आकाश’ समा लेने की जिद।
बहुत ही खूबसूरत रचना आज पहली बार आई पर दिल बहुत खुश हुआ बहुत सुन्दर रचना दोस्त जी :)
ReplyDeleteअच्छी ग़ज़ल!
ReplyDeleteभाई आपके प्रोफ़ाइल में ई-मेल आई.डी. नहीं है। हम आंच पर आपकी रचना लेना चाहते हैं, जिसकी सूचना मेल से नहीं दे पा रहे हैं। क्या आप अपना मेल आई.डी. प्रेषित करेंगे।
sundar gazal...
ReplyDeletebadhai.
खूबसूरत गजल.आभार.
ReplyDeleteसादर,
डोरोथी.
बढ़िया प्रस्तुति
ReplyDeleteबधाई
पीर बाबा की मज़ार का वो जंतर देखा
ReplyDelete...बहुत खूबसूरत गज़ल! ....सागर जी
.
ReplyDeleteप्रियवर सागर जी
सस्नेह … !
आपकी इस पोस्ट को पहले भी पढ़ कर गया था , पता नहीं कमेंट लिखना रह गया था या पब्लिश नहीं हुआ …
बहुत सुना था वहां कोई गहरा सा "सागर" बहता
गया,तो प्यास से मरता हुआ पोखर देखा
पूरी रचना अच्छी लगी …
हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !
-राजेन्द्र स्वर्णकार
Dost....beautifully crafted......
ReplyDeleteA gr888 piece of art :)
महा-स्वयंवर रचनाओं का, सजा है चर्चा-मंच |
ReplyDeleteनेह-निमंत्रण प्रियवर आओ, कर लेखों को टंच ||
http://charchamanch.blogspot.com/
बहुत सुना था वहां कोई गहरा सा "सागर" बहता
ReplyDeleteगया,तो प्यास से मरता हुआ पोखर देखा
Bahut bemisaal gzal...
बेहतरीन गजल ........
ReplyDeletebahut badhiya gazal..
ReplyDeleteढूँढने पर भी न मिला कोई लौटने का निशाँ
ReplyDeleteसिर्फ़ रुख़सत को बना था,वो रहगुज़र देखा
waah
बहुत सुना था वहां कोई गहरा सा "सागर" बहता
ReplyDeleteगया,तो प्यास से मरता हुआ पोखर देखा
मन को उद्वेलित करने वाली गजल.... आपको मेरी हार्दिक शुभकामनायें.
बहुत भावपूर्ण रचना |बधाई
ReplyDeleteआशा
भाई सागर जी बहुत सुंदर गज़ल बधाई और शुभकामनायें |
ReplyDeleteमुफ़लिसी में भी जिसे भूखा न रखा माँ ने
ReplyDeleteकुँए के पास ख़ामोश गड़ा था,वो पत्थर देखा
किसके आग़ोश में आख़िर कोई महफूज़ रहे
कारवां लूटते हाफिज़ को ही अक्सर देखा ...
बहुत बढ़िया गज़ल बधाई
बढ़िया प्रस्तुति.
ReplyDeleteमुफ़लिसी में भी जिसे भूखा न रखा माँ ने
ReplyDeleteकुँए के पास ख़ामोश गड़ा था,वो पत्थर देखा...bahut sundar panktiyan...mere blog pe aane aur hausla afjayee ke liye hardik dhnyawad
बहुत सुना था वहां कोई गहरा सा "सागर" बहता
ReplyDeleteगया,तो प्यास से मरता हुआ पोखर देखा
भावपूर्ण प्रस्तुति!
aap sabhi ka bht bht aabhar !! saadar!!
ReplyDeleteबाद मुद्दत के अपना घर देखा
ReplyDeleteइक महल था,जो खंडहर देखा
ढूँढने पर भी न मिला कोई लौटने का निशाँ
सिर्फ़ रुख़सत को बना था,वो रहगुज़र देखा
मुफ़लिसी में भी जिसे भूखा न रखा माँ ने
कुँए के पास ख़ामोश गड़ा था,वो पत्थर देखा
जो बन सका न हमारे इश्क़ की सलामती का सबब
पीर बाबा की मज़ार का वो जंतर देखा
hame aapki rachna behad pasand aai ,comment to ek baar hai magar padhkar kai dafe jaa rahi hoon .kamaal ka likhte hai aap .sagar ki gahrai ,khamoshi ,ufaan aur halchal sabhi kuchh maujad hai yahan to ,gotakhor banna hi padega mujhe doobne ke liye .