मैं इंतज़ार दो आँखों का, मैं अंतर्मन की गहराई !
मैं विरह-वेदना की पीड़ा, इक अनजाने की परछाई !!
मैं प्रश्न एक उत्तरविहीन, मैं भाव एक अनुभाव रहित !
स्वच्छंद कभी कानन खग सा, देहावसान सा निर्धारित !!
मैं दीपशिखा की अंतिम लौ, मैं अंधकार की इक लकीर !
मैं स्वप्न लोक का अधिनायक, मैं प्रेम जगत का इक फ़कीर !!
मैं बालकपन की चंचलता, मैं नीरवता की अंगड़ाई !
मैं त्रुटियों का पर्याय एक, पर दृढ़ता का मैं अगुवाई !!
उस परमपिता के विषद जगत का, इक नन्हा सा गागर मैं !
कोटियों नदी-ऊर्मियों बीच हूँ, इक तनहा सा "सागर" मैं !!
कोटियों नदी-ऊर्मियों बीच हूँ...................