बाद मुद्दत के अपना घर देखा
इक महल था,जो खंडहर देखा
ढूँढने पर भी न मिला कोई लौटने का निशाँ
सिर्फ़ रुख़सत को बना था,वो रहगुज़र देखा
मुफ़लिसी में भी जिसे भूखा न रखा माँ ने
कुँए के पास ख़ामोश गड़ा था,वो पत्थर देखा
जो बन सका न हमारे इश्क़ की सलामती का सबब
पीर बाबा की मज़ार का वो जंतर देखा
नाम-ए- महबूब पर मिटते हुए आशिक़ देखे
दिल की दुनिया को लूटता भी हमसफ़र देखा
किसके आग़ोश में आख़िर कोई महफूज़ रहे
कारवां लूटते हाफिज़ को ही अक्सर देखा
बहुत सुना था वहां कोई गहरा सा "सागर" बहता
गया,तो प्यास से मरता हुआ पोखर देखा