Monday 25 July 2011

इक महल था जो खंडहर देखा...!!!



बाद मुद्दत के अपना घर देखा 
इक महल था,जो खंडहर देखा

ढूँढने पर भी न मिला कोई लौटने का निशाँ
सिर्फ़ रुख़सत को बना था,वो रहगुज़र देखा

मुफ़लिसी में भी जिसे भूखा न रखा माँ ने 
कुँए के पास ख़ामोश गड़ा था,वो पत्थर देखा

जो बन सका न हमारे इश्क़ की सलामती का सबब 
पीर बाबा की मज़ार का वो जंतर देखा

नाम-ए- महबूब पर मिटते हुए आशिक़ देखे
दिल की दुनिया को लूटता भी हमसफ़र देखा

किसके आग़ोश में आख़िर कोई महफूज़ रहे 
कारवां लूटते हाफिज़ को ही अक्सर देखा

बहुत सुना था वहां कोई गहरा सा "सागर" बहता 
गया,तो प्यास से मरता हुआ पोखर देखा



Sunday 24 July 2011

मै इक निर्जल सागर

मैं सागर हूँ , इस सागर की बस इतनी सी परिभाषा है !
जो बूँद-बूँद में भर जाता, पर बूँद-बूँद को प्यासा है !!

तुम ज्वार समझते खुशियों का , मेरे अंतस की पीड़ा है !
हर भाटा,  कदम हटा पीछे ; हर लहर दर्द की वीणा है !!

रिश्तों की लाखों ही नदियाँ, मुझमे आकर हर रोज़ मिलीं ! 
दुर्भाग्य मगर देखो मेरा, होता खारापन दूर नहीं !!

प्रायः विचार करता रहता, ये खारापन आया कैसे ?
मैं सुधा बाँटने निकला था, फिर मैंने विष पाया कैसे ?

ये गूढ़ समझ में अब आया, ये  फल है निष्फल भावों का !
इसको तो खारा होना है , ये जल है मेरी  निगाहों का !!

पर प्राणप्रिये था ज्ञात तुम्हें, तुमसे अस्तित्व हमारा है !
मैं तो था इक निर्जल दरिया, ये बहता प्रेम तुम्हारा है !!
तुम थीं  बदली इन सांसो की, फिर जीवन को तरसाया क्यों ?
जन्मों से प्यासे " सागर " को, यूँ बूंद - बूंद बरसाया क्यों ?


पहले तो था  मैं अंतहीन, अब अर्थहीन सा लगता हूँ  !
प्रतिदिन सूरज मुझमें डूबे, आभाविहीन सा लगता हूँ !!


मैं सागर हूँ , इस सागर की बस इतनी सी परिभाषा है !
जो बूँद-बूँद में भर जाता, पर बूँद-बूँद को प्यासा है !!


Friday 22 July 2011

मेरी प्रथम कविता....कविताओं में ढूँढ रहा हूँ ,मै अपनी कविता को..!!

कविताओं में ढूँढ रहा हूँ ,मै अपनी कविता को ।
नयनों के जल से पवित्र हो ,उस निर्मल सरिता को  ॥

खुशियों के कुछ क्षण क्रय कर लूँ ,उस नश्वर मुद्रा को ।
जीवन के गम भी सो जाये ,ऐसी चिर निद्रा को ॥

मन के अंधकार "सागर" में ,जीवन की आशा को ।
अन्तिम क्षण में ढूँढ रहा हूँ  ,सुख की अभिलाषा को  ॥

जो सचमुच में सच हो जाये,कुछ ऐसे सपनों को ।
कभी ना रूठे जीवन में जो ,कुछ ऐसे अपनों को ॥

जहाँ मुझे कोई ना देखे ,ऐसे निर्जन पथ को ।
जिस पर बैठ मृत्यु रण में ,मै जीत सकूँ , उस रथ को ॥

अपने कठिन परिश्रम के ,बदले मे पाये फल को ।
जीवन जैसी कठिन पहेली  ,के सीधे से हल को ॥

तन्हाई के कारण खोई ,मैं अपनी सुध बुद को  ।
सच तो ये है मै अपने में ,ढूँढ रहा हूँ खुद को ॥

सच तो ये है............

Wednesday 20 July 2011

एक पाती.... जो भावो के सागर से बह शब्दों के बाजार में उतर गयी....!!!

यह दिवस बहुत अनमोल प्रिय,
अब इंतज़ार सब खत्म हुये,
तुम चयन करो इक पथ नवीन,
जीवन के लिखों गीत नये..
ऐ-मेरे जीवन की पलाश,
मेरी सांसो की परछाई,
इक नन्ही सी गुङिया बन कर,
इस दिन तुम धरती पर आई....!

पल याद आ रहा वो मुझको,
जब मुझसे पहली बार मिली,
वो शोखीपन वह अल्हङपन,
चिङियो सी चहकी खिलीखिली, 
और वो भी दिन जब जिद करके,
मुझसे क्या- क्या थी कहलाती,
अपने अंतर के भावोँ को
मेरी ज़ुबान से बतलाती...!

पर उलझा रहता हूँ इसमे,
क्या मै बस इक पङाव ही था?
तुम परिवर्तन की धारा थी,
मै इक पल का बदलाव ही था?
मै जैसा था,
मै जो भी था,
पहले तुमने स्वीकार किया,
फिर क्यू शर्तो औ' तर्को से,
उन भावो से इंकार किया...!

ये सोच रही होगी अब तुम,
इक मर्यादा की देवी हो?
तुम कर्मभूमि की गीता हो?
तुम मात-पिता की वेदी पर जल 
जाने वाली सीता हो?
हो सकता हैं,
तुम सच भी हो, 
पर प्राणप्रिये यह भी सच हैं,
तुम अब विवाहित नही रहीं...!

तुम देख रहीं जो आँखोँ से,
वो सारे सपने मेरे हैं
तुम सात कदम जो साथ चली,
वो सात जनम के फेरे हैं,
जो लहू टपकता आँखोँ से,
वो मांग तुम्हारी भरता हैं,
उस माथे की बिँदी का कुमकुम,
मेरे होठोँ पर मिलता हैं,
तेरे हाथोँ पर चटक चढ़ीं,
मेरे हाथोँ की रेखायेँ,
तेरे कदमोँ  से छप जाती,
मेरे जीवन की आशायेँ....!

तुम जाति-धर्म,
रस्मो-रिवाज,
और ऊँच-नीच समझाती अब?
प्रियतमा नये सांचे मेँ क्यू,
बीते कल को पिघलाती अब?

तुमने क्या त्याग किया मेरा,
अब मै तुमसे अंजाना हूँ,
अब नया जनम यह हैं तेरा,
अब मै बीता अफसाना हूँ....!

आजाद तुम्हे करता अब मै,
अब जाओ डोली मेँ बैठो,
जा कर इक नया रुप ले लो,
तुम अब परिणय मेँ बँध सकती,
अब तुम "परिणीता" नही रहीं....!!

Monday 18 July 2011

तुम्हारा हो......!!!

तुम जियो उस प्यार मे जो
 मैने तुम्हे दिया है,
उस तन्हाई मेँ नही
 जिसे मैने खुद मे छिपा लिया है....!

तुम खुश रहो उस खुशी मेँ
 जो मैने तुम्हारे लिये चुनी है,
उस पीर मेँ नही
 जो मैने खुद मे समेट ली है....!

तुम बढो उस मंजिल की तरफ
 जिनकी राहे मैने तुम्हारे लिये बनाई है,
चुन लिया सब काँटो को फूलो से राहे सजायी है....!

तुम छुओ उस आकाश को
 जो मैने तुम्हारे लिए तारो से  सजाया है,
उस अँधेरे को नही जिसे मैने खुद मेँ छिपाया है....!

तुम्हे मंजिल तक पहुँचाने का
 एकमात्र उद्देश मेरा हो,
वहाँ का आकाश,
वहाँ की खुशी,
वहाँ का सवेरा सिर्फ तुम्हारा हो..!!