Saturday 26 November 2011

कविता बनकर उतरी तुम..... !!!

जब-जब अंतस की खाई में,
गुमसुम होकर तन्हा बैठा
जाने-अनजाने से मुझमे,
इक कविता बनकर उतरी तुम....


स्मृतियों के  हिमपातो में,
मैं विरह ताप में जब झुलसा 
मेरे सीने के गोमुख से,
इक  कविता बन कर उतरी तुम....


मेरी रेखाओं के विलोम,
मैं तेरा ही पर्याय रहा
तुम मोती बन अनमोल हुई,
मैं सीप वर्म असहाय रहा....


तेरे दरवाज़े से जब भी,
बिन दस्तक दिए चला आया
मेरे पावो के छालो में,
इक  कविता बन कर उतरी तुम...


तेरे ख्वाबो से विलग हुआ,
पतझड़ के बेबस पत्तो सा 
जीवन चौसर पर हार गया,
अर्जुन सा खड़ा निहत्थो सा...


जब किसी मंच पर प्रेम काव्य,
पढ़ते-पढ़ते ख़ामोश हुआ
श्रोता में बहकर अश्रुधार,
इक कविता बन कर उतरी तुम...


जब जेठ दुपहरी में शीतल 
इक मंद बयार बहा करती
जब-जब सावन की बूंदों में,
इक जलती अगन छुआ करती...

जब इन पथराई आखों में,
तृप्ति से बढ़ कर प्यास हुई,
जब-जब 'सागर' की बाँहों में 
धरती पिघली आकाश हुई...


घनघोर अमावस में जब-जब 
पूरनमासी का चाँद उगा 
मेरे खंडित उपवासों से 
इक  कविता बनकर उतरी तुम.....!!!

Wednesday 2 November 2011

वो शाम....!

रात के आँचल को ढकती हुई,वो धूल की शाम
चाँद की जुल्फों में खिलती हुई,वो फूल की शाम 
गाँव को लौटते  चरवाहे का वो अज़नबी सा गीत 
दिन के हारे हुए सूरज पे जैसे शाम की जीत..

उड़ते पंछियों की मस्त धुन में गाती वो शाम
भीनी-भीनी सी ख़ुश्बुओं का जश्न मनाती वो शाम 
आज तक याद हैं, हँसती हुयी वो रात की शाम 
हमारे प्यार की वो पहली मुलाक़ात की शाम..

गाँव से दूर टीले पे गड़ा वो पत्थर 
जिसपे बैठा था,मैं इक अज़नबी की तरह
वो बिखरे-बिखरे से बाल,सूनी पलकों पे वो धूल के कण..

किसकी तलाश थी,कुछ भी पता नही 
वो कौन राह थी,कुछ भी पता नही 
माथे पर उमड़ती थी,लकीरे कितनी 
पर किसकी चाह थी,कुछ भी पता नही..

याद हैं तुमको हवा का वो मदहोश झोंका
जिसमे मदहोश हुआ,आज तक मदहोश हूँ मैं,
हर तरफ गूंजती है आज तक शहनाइयो की गूंज,
कांपते लब हैं मग़र आज तक ख़ामोश हूँ मैं..

याद है मेरी तरफ़ देखकर वो मुस्कराना तेरा 
एकटक देखना,कभी वो पलकें चुराना तेरा 
मैं तो बस मर ही गया था उस इक पल के लिए
मुझे इक ज़िन्दगी सी दे गया,वो शर्माना तेरा.. 

वो इक ख्वाब था या मासूम निगाहों का प्यार 
वो ख़ुदा का था कोई तोहफ़ा या बारिश की फुहार 
वो हिना की थी कोई खुश्बू या इबादत-ए-हयात 
वो ख़ुशी थी,मोहब्बत थी या ज़िन्दगी का सबात..

मैं तुझे ढूंढ़ता हूँ आज तक,हर रात में जुगनू की तरह 
मैं तुझे पूजता हूँ आज तक,हर फूल में खुश्बू की तरह
ऐसा भटका हूँ,तितली का टूटा हुआ पर हूँ जैसे 
ऐ ख़ुदा तू ही बता,क्यों अधूरा सा सफ़र हूँ जैसे...

मेरे मालिक तू इस तरह मेरा इम्तहान न ले 
दफ़्न कर दे मुझे,मेरी ज़िन्दगी की जान न ले 
वो जा रहा है मुझे छोड़कर,इक अज़नबी की तरह 
जिसने ग़र सांस भी ली हैं,तो मेरी मोहब्बत के साथ..

मैं उदास बाग़ सा हूँ,हर फूल बिखर गया जिसका 
इक मुसाफ़िर हूँ,कारवां गुज़र गया जिसका 
पता है ऐ मेरे हमदम,मैं आज भी वही पर हूँ 
फ़र्क हैं,उसी पत्थर पे बैठा आज एक पत्थर हूँ..

वो चराग़ जो जला था,हमारी पहली मुलाक़ात के साथ 
बुझ गया आज तेरी शहनाइयो की रात के साथ......