वो दर्द जुबा पर लाता हूँ
फिर आजादी की बेला पर
इतिहास आज दोहराता हूँ
कहते हैं सब कुछ थम जाता
पर काल कभी ना सोता हैं
प्रतिदिन प्रतिपल का वो साक्षी
इतिहास का प्रहरी होता हैं
इक वो भी दौर जिया हमने
इतिहास हमारा विस्मृत था
चरवाहे, ढोंगी, सन्यासी
कहकर,जग हमसे परचित था
सैन्धव में उदित हुआ सूरज
पश्चिम की आखें चौंध गयी
वह वृहत सभ्यता का स्तर
मानो इक चपला कौंध गयी
यह कहते गर्व मुझे होता
हम शिवलिंग पूजक तब भी थे
हम मात्रदेवि के अनुयायी
हम अन्नोत्पादक तब भी थे
जब नग्न फिरा करता पश्चिम
हमने वेदों की रचना की
राजन्य,पुरोहित, सभा-समिति औ',
सेनानी की कल्पना की
थे वर्ण चार पर भेदभाव का
लेश-मात्र स्थान नही
व्याकरण, छंद, ज्योतिष रचते
पर कही तनिक अभिमान नही
मैडम क्यूरी पर इठलाते
नादानों को क्या दिखलाऊ ?
लोंपा,मुद्रा, घोषा, कांक्षा
अगणित विदुषी क्या बतलाऊ
फिर वह प्रकाश उपजा जिसकी
आभा में शांति छटा बिखरी
दुःख से मुक्ति का मार्ग मिला
सुखदायी मानवता निखरी
वह पल जिसकी स्मृति से ही
नयनो से सहज अश्रु बहते
माँ से चिपका राहुल अबोध
पर गौतम तनिक नही डिगते
हिंसा तो पशुता की प्रतीक
निर्ग्रन्थ यही हैं बतलाते
बस पंचमहाव्रत ही उपाय
कैवल्य मार्ग जब समझाते....
हैं हास अगर जीवनदायी
उपहास विनाश करा देता
कुछ द्रुपदसुता जैसा विनोद
फिर नन्दवंश दुहरा देता
जब घनानन्द की राजसभा में
विष्णु गुप्त की शिखा खुली,,
जब पुनः शिखा तो बंधी किन्तु,
वह राजसभा फिर नहीं खुली
फिर वह भी दिन था आ पहुंचा
इतिहास गर्व जिस पर करता
हम क्यूँ नेतृत्व करे जग का
इतिहास प्रमाण दिया करता
रणघोष ध्वनि जब शांत हुई
इक शासक कलिंग विजेता था
चहुँओर पताका फहराती
जिसका वह स्वयं प्रणेता था
जब युद्ध साक्षी दिनकर भी
थक कर अपने घर लौट गया
वह शासक दंभपान करने
तब समर भूमि की ओर गया
घनघोर अँधेरे में दिखती थी
अगणित नीली-पीली आखें
आपस में लड़ते, गुर्राते
गीदड़ो-भेडियो की साँसे
दूसरा कदम बस रखना था
वह फिसला दूर गिरा जाकर
तन भीग गया उसका पूरा
फिर उठा एक आश्रय पाकर
ज्यों ही मशाल पकड़ी उसने
और अन्धकार ज्यों दूर हुआ
टप-टप तन से चू रहा लहू
कातर सा निर्मम शूर हुआ
ये हाय विजय कैसी मेरी?
कोटियो शवों के बीच खड़ा
शोणित की बहती सरिता में
सिर कही पड़े, धड़ कही पड़ा
ऐ मेरे सैनिक उठो आज
क्यों विजय-हर्ष से वंचित हो?
ऐ प्रतिपक्षी शव शोकमुक्त
क्यों नही हार से चिंतित हो?
जिस कलिंग विजय पर जान गयी
अब क्यों तटस्थ तुम उससे हो?
कब शांत रहे उपक्रम से तुम
अब क्यों उसके निर्णय से हो?
हे ईश्वर इस कल्पित मद ने
यह क्या अनर्थ करवा डाला
किस भय ने विजय आवरण में
झूठा पुरुषार्थ करा डाला
पर क्षमाप्रार्थी हूँ जग का
यह प्रायश्चित करता हूँ मैं
यह अंतिम भेरीघोष कलिंग
अब धम्मघोष चुनता हूँ मैं
हर युद्ध विजय है तत्वहीन
अब धम्म विजय करना होगा
सब प्रजा पुत्रवत होती है ,
ऐसा निश्चय करना होगा
इतिहास जानता है इसको
कि कलिंग युद्ध अंतिम न रहा
वह युग फिर कभी नही आया
जब यह मानव रक्तिम न रहा
कलिंग जीतने की लिप्सा
तब से अब तक बढ़ती जाती
कोई अशोक फिर पिघलेगा
यह प्रायिकता घटती जाती
जब ज्ञानचक्षु खुलते "सागर "
सब भेदभाव मिट जाता है
क्या अपना और पराया क्या
सारा दुराव मिट जाता है
पश्चिम की बढ़ती आंधी पर
पूरब का दीप जलाता हूँ
फिर आजादी की बेला पर
इतिहास आज दुहराता हूँ.
फिर आजादी की बेला पर