भावनाओं के खेत में बोये थे चंद बीज़
के एक रोज़ प्रेम की फसल लहलहाएगी ,
मिलन के फूल खिलेंगे ,
स्पर्श की खुश्बू बिखरेगी,
एक नया स्रजन होगा !!
हम सींच ना सके,
प्रेमांकुर तो फूटने से पहले ही
विलीन हो गए,
उसी भावनाओं के खेत में
और स्वतः उग गए -
कुछ खरपतवार !!
ईर्ष्या,दर्द , नफ़रत
और सूनापन तो ऐसा उगा
के काटे नही कटता है...
अब तो शब्दों की आरी भी
मोथरी हो चली...
एक माली , फूलों के कवि में तब्दील हो गया..
और कविता निरुद्देश्य नियति बन गयी.,.,!!!!!!!!!!!