Tuesday 27 December 2011

नये वर्ष पर कुछ नया गीत हो....!!!


                       नये वर्ष पर कुछ नया गीत हों ..                        

नये वर्ष पर कुछ नया गीत हों 
नये गीत में कुछ नये बोल हो
नयी थाप गूंजे,जो अनमोल हो
मिलन बासुंरी में नयी धुन छिड़े,
नहीं अब विरह की कोई रीत हो
नये वर्ष पर कुछ......

नये छंद हों,कुछ नये रस बहे,
नये अर्थ कुछ,सर्ग-प्रत्यय नये 
नये रूपलंकार पर शोध हो
नये हर क़दम पर नयी जीत हो.
नये वर्ष पर कुछ .....

विगत वर्ष कुछ लिख गया,रह गया,
कोई बिन कहे कुछ,बहोत कह गया 
कोई पर्ण फिर टूट कर जुड़ गया
कोई बीच 'सागर' पृथक पड़ गया 
गयी बात छोड़ो,बढ़ो हाथ दो
चलो झूमकर नाच लें मीत हो
नये वर्ष पर कुछ......
आप सभी को नव वर्ष की हार्दिक शुभकानायें... 

Saturday 26 November 2011

कविता बनकर उतरी तुम..... !!!

जब-जब अंतस की खाई में,
गुमसुम होकर तन्हा बैठा
जाने-अनजाने से मुझमे,
इक कविता बनकर उतरी तुम....


स्मृतियों के  हिमपातो में,
मैं विरह ताप में जब झुलसा 
मेरे सीने के गोमुख से,
इक  कविता बन कर उतरी तुम....


मेरी रेखाओं के विलोम,
मैं तेरा ही पर्याय रहा
तुम मोती बन अनमोल हुई,
मैं सीप वर्म असहाय रहा....


तेरे दरवाज़े से जब भी,
बिन दस्तक दिए चला आया
मेरे पावो के छालो में,
इक  कविता बन कर उतरी तुम...


तेरे ख्वाबो से विलग हुआ,
पतझड़ के बेबस पत्तो सा 
जीवन चौसर पर हार गया,
अर्जुन सा खड़ा निहत्थो सा...


जब किसी मंच पर प्रेम काव्य,
पढ़ते-पढ़ते ख़ामोश हुआ
श्रोता में बहकर अश्रुधार,
इक कविता बन कर उतरी तुम...


जब जेठ दुपहरी में शीतल 
इक मंद बयार बहा करती
जब-जब सावन की बूंदों में,
इक जलती अगन छुआ करती...

जब इन पथराई आखों में,
तृप्ति से बढ़ कर प्यास हुई,
जब-जब 'सागर' की बाँहों में 
धरती पिघली आकाश हुई...


घनघोर अमावस में जब-जब 
पूरनमासी का चाँद उगा 
मेरे खंडित उपवासों से 
इक  कविता बनकर उतरी तुम.....!!!

Wednesday 2 November 2011

वो शाम....!

रात के आँचल को ढकती हुई,वो धूल की शाम
चाँद की जुल्फों में खिलती हुई,वो फूल की शाम 
गाँव को लौटते  चरवाहे का वो अज़नबी सा गीत 
दिन के हारे हुए सूरज पे जैसे शाम की जीत..

उड़ते पंछियों की मस्त धुन में गाती वो शाम
भीनी-भीनी सी ख़ुश्बुओं का जश्न मनाती वो शाम 
आज तक याद हैं, हँसती हुयी वो रात की शाम 
हमारे प्यार की वो पहली मुलाक़ात की शाम..

गाँव से दूर टीले पे गड़ा वो पत्थर 
जिसपे बैठा था,मैं इक अज़नबी की तरह
वो बिखरे-बिखरे से बाल,सूनी पलकों पे वो धूल के कण..

किसकी तलाश थी,कुछ भी पता नही 
वो कौन राह थी,कुछ भी पता नही 
माथे पर उमड़ती थी,लकीरे कितनी 
पर किसकी चाह थी,कुछ भी पता नही..

याद हैं तुमको हवा का वो मदहोश झोंका
जिसमे मदहोश हुआ,आज तक मदहोश हूँ मैं,
हर तरफ गूंजती है आज तक शहनाइयो की गूंज,
कांपते लब हैं मग़र आज तक ख़ामोश हूँ मैं..

याद है मेरी तरफ़ देखकर वो मुस्कराना तेरा 
एकटक देखना,कभी वो पलकें चुराना तेरा 
मैं तो बस मर ही गया था उस इक पल के लिए
मुझे इक ज़िन्दगी सी दे गया,वो शर्माना तेरा.. 

वो इक ख्वाब था या मासूम निगाहों का प्यार 
वो ख़ुदा का था कोई तोहफ़ा या बारिश की फुहार 
वो हिना की थी कोई खुश्बू या इबादत-ए-हयात 
वो ख़ुशी थी,मोहब्बत थी या ज़िन्दगी का सबात..

मैं तुझे ढूंढ़ता हूँ आज तक,हर रात में जुगनू की तरह 
मैं तुझे पूजता हूँ आज तक,हर फूल में खुश्बू की तरह
ऐसा भटका हूँ,तितली का टूटा हुआ पर हूँ जैसे 
ऐ ख़ुदा तू ही बता,क्यों अधूरा सा सफ़र हूँ जैसे...

मेरे मालिक तू इस तरह मेरा इम्तहान न ले 
दफ़्न कर दे मुझे,मेरी ज़िन्दगी की जान न ले 
वो जा रहा है मुझे छोड़कर,इक अज़नबी की तरह 
जिसने ग़र सांस भी ली हैं,तो मेरी मोहब्बत के साथ..

मैं उदास बाग़ सा हूँ,हर फूल बिखर गया जिसका 
इक मुसाफ़िर हूँ,कारवां गुज़र गया जिसका 
पता है ऐ मेरे हमदम,मैं आज भी वही पर हूँ 
फ़र्क हैं,उसी पत्थर पे बैठा आज एक पत्थर हूँ..

वो चराग़ जो जला था,हमारी पहली मुलाक़ात के साथ 
बुझ गया आज तेरी शहनाइयो की रात के साथ......



Sunday 25 September 2011

शब्द मोल...... !

मैं शब्द बेचने निकल पड़ा....

बचपन से सुनता आया था,
मैं शब्द-देश का राजकुंवर 
मैं भाव गगन का तारकेश,
अक्षरगिरि  का  उत्तुंग शिखर 
कंटकाकीर्ण  सिंहासन का,
मैं छत्र बेचने निकल पड़ा....
मैं शब्द बेचने निकल पड़ा....

बरसों से देख रहा था मैं,
घर की हर सुबह उदास उगी 
हर एक दोपहर आंगन में,
जठराग्नि सूर्य से तेज तपी  
चौके के चूल्हे को मैंने, 
जब सिसक-सिसक रोते देखा....
मैं शब्द बेचने निकल पड़ा...

मन  के तहख़ाने के भीतर,
जब ह्रदय कोठरी में पंहुचा 
संभ्रांत अतीत किवाड़ो पर,
यश की मजबूत कड़ी देखी
दर के ललाट पर लटका था,
बेदाग़ विरासत का ताला..
पुर्खों के नाम गुदे देखे,
पीढ़ियों की लाज जड़ी देखी

अनुभव की कुंजी से मैंने,
जीवन कपाट ज्यों ही खोले-
कैसा अनमोल खज़ाना था !
कितना नवीन कितना चेतन,
कल तक मृतप्राय पुराना था !

रंग बिरंगे शब्दों से,
थी ह्रदय कोठरी भरी पड़ी 
कुछ मुक्त,वयक्त,उपयुक्त शब्द,
शब्दों की कुछ संयुक्त लड़ी

कुछ शब्द दिखे ऐसे मुझको,
तदभव-तत्सम में उलझ रहे..
कुछ शब्द शूरवीरो के थे,
हीरे मोती से चमक रहे 

कंकड़ पत्थर जैसे कठोर,
कैकेयी  वचन पड़े देखे 
सीते-सीते कहकर फिरते,
कुछ 'राम शब्द' रोते देखे

चोरी का माखन टपक रहा,
कुछ शब्द तोतले भी देखे 
झूठे मद में दिख रहे घने, 
कुछ शब्द खोखले भी देखे..

दायें कोने इक शब्द ढेर,
यूँ ही देखा चलते-चलते 
पाषाण शब्द के भार तले,
कुछ दबे शब्द आहें भरते 

दो-तीन थैलियो में भरकर, 
मैं शब्द बेचने निकल पड़ा...

ज्यों ही बज़ार जा कर बैठा,
इक प्रेमी युगल निकट आया 
बोला-कुछ शब्द मुझे दे दो,
जिस पल मैं प्रेम मगन होकर
इसकी आँखों में खो जाता
कुछ होश नही रहता अपना,
प्रेयसी से कुछ ना कह पाता
हे शब्द देश के सौदागर,
कुछ प्रेम शब्द मुझको दे दो !

दो शब्द उसे मैंने बेचे-
इक 'त्याग' और इक 'निष्छलता'

यह सदा स्मरण रखना तुम,
ये त्याग प्रेम की सरिता है
निष्छल होकर तुम मौन सही,
हर सांस तुम्हारी कविता है..

इस लोकतंत्र के अभिकर्ता,
इक थैला लेकर आ पहुंचे 
बोले दो शब्द भरो इसमें-
'आश्वासन',केवल 'आश्वासन'

मैं बोला-अब वह दौर नही,
जब आश्वासन ले जाओगे 
दायित्व बराबर ही लोगे,
तब ही आश्वासन पाओगे

इक शब्द मुफ़्त देकर बोला-
यह 'कर्मदंड' कहलाता हैं 
अब तक वह प्राणी नही हुआ,
जो भी इससे बच पाता हैं !

इक तथाकथित कवि भी आये,
बोले कुछ शब्द तुरत दे दो,
इक कविसम्मलेन जाना हैं

मैंने पूछा इतनी जल्दी,
कैसे कविता रच पाओगे ?
तुलसी,कबीर,मीरा,दिनकर,
के क्या वंशज कहलाओगे ?

वह बोला-समय क़ीमती हैं, 
अब क्या कविता और क्या रचना 
शब्दों का घालमेल बिकता,
झूठे रस की आदी रसना

कुछ शब्द तौल तो दिए उसे,
इक शब्द साथ दे कर बोला-
कविताई जो भी तुम जानो,
पर कविवर याद इसे रखना 
यह शब्द 'संस्कृति' कहलाता, 
बस इसकी लाज नही तजना !

सामर्थ्य ज़रूरत के माफ़िक,.
लोगो ने शब्द ख़रीद लिए 
उस शब्द आवरण के भीतर,
सबने अपने हित छिपा लिए 

निर्धन ने आशा और कृपा,
धनवानों ने धन शब्द लिया 
नारी ने त्याग,प्यार लेकर,
आँचल में जगत समेट लिया 

ज़्यादातर लोगो को देखा,
वे लोभ ईर्ष्या लेते थे
दुर्बुद्धि कुछ ऐसे भी थे,
जो  निष्ठुर हिंसा लेते थे !

जब साँझ हुई घर को लौटा,
बस तीन शब्द अवशेष रहे-

पहला 'श्रृद्धा' कहलाता हैं-
गुरु और मात-पितु को अर्पण 

इस 'गर्व' शब्द से करता हूँ-
मैं राष्ट्र शहीदों का तर्पण 

तीजा यह 'सागर' भावों का,
प्रियतमा तुम्हारा रहे सदा 
रिश्तो और जन्मो से असीम,
ये प्रेम हमारा रहे सदा..

जीवन के इस घटनाक्रम पर,
इक प्रश्न मेरे मन में उठता
इस मोल-तोल की दुनिया में,
अनमोल नही कुछ क्यों रहता 

सपनो के बाज़ारुपन में,
क्योंकर कोई परमार्थ मिले ?
'शब्दों को अर्थ नही मिलता,
शब्दों से केवल अर्थ मिले'





Saturday 10 September 2011

और तुम ख़ामोश थी.......!

और तुम ख़ामोश थी..
मैं हमेशा की तरह ही बोलता था जा रहा
पूछता तुमसे कभी कुछ,और तुमको देखता 
और तुम ख़ामोश थी.....

दूब पर बिखरे हुए मोती हज़ारों ओस के 
मौन स्वीकृति दे रहे थे प्रेम को मानो हमारे
भोर की लाली खिलाती गुनगुनी सी रश्मियाँ सब, 
अर्घ पहला दे रही आलिंगनो को थी तुम्हारे
पक्षियों के पुंज चिंतित,चहकते सब पूछते थे 
आहलादित सुबह में,इस मौन का औचित्य क्या है?
प्रणय में यह वेदना क्यों.....?
और तुम ख़ामोश थी.....

गीत गाते झूमते जब सामने कुछ कृषक गुज़रे 
याद है तुमको हमें वो देख कर चुप हो गए थे,
और वो मृग युगल भी जो झील में था खेलता,
देख कर मानव युगल कुछ खिन्न जैसे हो रहे थे,
दरअसल हर रूप में थी,प्रकृति तुमसे पूछती 
प्रीति के संगीत में इस शांति का अभिप्राय क्या है?   
मिलन में व्यवधान क्यों.........?
और तुम ख़ामोश थी.....

दोपहर जब तप रहा था सूर्य चारों ओर से,
अंक में लेटी हुई तुम शांत सब सुनती रहीं  
चित्त भूला जा रहा था सहज जीवन मार्ग अपना,
और तुम चुपचाप लेटी,पथ नया चुनती रही,
और संशय छाँव में,मैं स्वयं से था पूछता 
प्रेम की भागीरथी में जब नही पावन हुए 
अग्नि फेरे और कुमकुम स्वांग का औचित्य क्या है?
व्यर्थ का यह योग क्यों........?
और तुम ख़ामोश थी.....

सायं की बेला निकट,सब पथिक घर को लौटते 
पक्षियों के झुण्ड,वापस घोसलों को उड़ चले
और तुमने मौन तोड़ा बोलकर दो शब्द यह-
"आज का यह दिवस अंतिम साथ अपने प्रेम का"
और पूरे दिवस की हर बात पर बस यह कहा-
"क्यों तुम्हारे प्रश्न का उत्तर भला मैं दूँ तुम्हे?"

और वह जो शाल ख़ामोशी की ओढ़े सुबह से 
मेरे कांधे पर ओढ़ा कर,और फिर तुम चल दिए 
और फिर तुम चल दिए,निस्वार्थ से निर्लिप्त से
और मैं तकता रहा निर्मूल सा,निष्प्राण सा 
और सहमी झील अपने पाश में थी सिमटती 
और दोनों हरिण रोते भागते थे हर तरफ़ 
और पथिको ने कभी वह रास्ता फिर न चुना 


और तब से आज तक वह पेड़ निष्फल ही रहा
और तब से दूब का तिनका नही उगता वहां 
उस दिवस की यंत्रणा पर प्रकृति का ऐसा रुदन !
और हम थे,रत्न "सागर" में सदा निर्धन रहे
प्रेम अमृत या गरल मैं आज तक समझा नही
प्रेम की प्रत्यक्ष परिणत बस यही दिखती मुझे-
"मंदिरों की घंटियों सी गूंजती हो आज तुम
मौलवी के हाथ की तस्बीह सा ख़ामोश मैं"


मौलवी के हाथ की तस्बीह सा......................











Saturday 27 August 2011

कई दफ़े सोचता हूँ..!

कई दफ़े सोचता हूँ कि तुम कहाँ हो?
कि इस आंगन में पाँयजेबर की कोई खनक ही नही
कि सामने मेहंदी के पेड़ की एक पत्ती भी तो न टूटी
कि कुआं तो अब भी प्यासा हैं रस्सी की इक छुअन के लिये
कि उस तार पर भीगी कोई चुनरी नही सूखी अब तक
कि माँ के हथफूल अब तक कपड़े में लिपटे रखे
कि घर के दरवाजे पे कोई झालर नही टंगी अब तक
बहोत दफ़े सोचता हूँ कि तुम कहाँ हो?
कि सुबह की चाय अब तक दफ़्तर में ही पीता हूँ मैं
कि शाम अब तक मेरी होती हैं गंगा की रेत पर लिखते
बहोत दफ़े सोचता हूँ-
कि तुम थी भी,
या सिर्फ़ शब्दों का हेर-फेर था?
अहसासों का था तिनका कोई
या फिर सिर्फ़ विचारो की अदला-बदली?
ग़र नही थी,
तो फिर क्यों मैं ग़ज़ल पढ़ने से डरता अब तक?
क्यों उलझी रहती हैं 
रात की चादर की बेतरतीब सिलवटें?
क्यों सुबह का सूरज मेरी आखों में उगता पहले?
सब कहते हैं-यहाँ कोई तो नही
 फिर मैं किससे कहता हूँ-
"दो पल रुको तो, फिर चली जाना" 
ये सच हैं कि क़दमो के निशां
सिर्फ़ एक के दिखते सबको
पर कोई हैं,
 जो क़दम-दर-क़दम मेरे साथ-साथ चलता हैं...
सांस-दर-सांस मेरे सीने में सुलगता हैं....
लफ्ज़ -दर-लफ्ज़ मेरी नज़्म में उतरता हैं.....
कई दफ़े सोचता हूँ कि तुम कहाँ हो?




Monday 22 August 2011

हे कमल नयन मुरली वाले...!!!

    हे कमल नयन मुरली वाले,
इतना वरदान मुझे दीजै,
राधा का पद वापस लेकर,
रुकमिणी का नाम दिला दीजै,

तुमने आशीष दिया था जो,
मैं सदा तुम्हारी कहलाऊं,
अब पता चल गया है मुझको,
वह सब बस एक दिखावा था
मुरली की धुन में भूल गयी,
कि फेरे सात गिने जाते,
वह युग-युग का एकत्व भाव,
वह सब बस एक छलावा था

है प्रेम समर्पण और त्याग ,
यह तुमने पाठ सिखाया था,
क्यों तुमसे निर्मित यह समाज
फिर दीपक से सूरज देखे?
सागर में बूंद समाहित है,
यह उनमे भी रिश्ता देखे?
यह कैसा युग आ गया नाथ,
मुझ पर तुम पर उंगली उठती,
इन सात गिनतियो के बग़ैर,
हर प्रेम कथा घुटती रहती

कल का अखबार पढ़ा तुमने,
इक राधा जलकर ख़ाक हुई,
अब मोहन भी दम तोड़ रहा,
यह कैसी झूठी लाज हुई?
हे कृष्ण सोचती हूँ मैं यह,
सौभाग्य मेरा मैं अब न हुई,
जो माँ की कोख़ में बच जाती,
तो फिर यह लोग जला देते

जब जनम अष्टमी पर कोई,
हम दोनों की मूरत छूता,
सच कहती हूँ हे बंशीधर,
मुझको उन सबसे भय लगता,

मैं देख रही हूँ, हे भगवन,
तुमको दुनिया की समझ नही,
विनती तुमसे करती गिरिधर,
तुम प्रेम भले मुझसे न करो
पर बस विवाह रच लो मुझसे,
वरना यह सब दुनिया वाले,
अब साथ नही रहने देंगे,
वह प्रेम कर्म और ध्यान योग,
सब बीते कल की घड़ियाँ है,
अब जीवनसूत्र नही कुछ भी,
सब मंगलसूत्र की लड़िया हैं,
सब मंगलसूत्र की लड़िया हैं..

Wednesday 10 August 2011

आजादी की बेला पर.. इतिहास आज दुहराता हूँ...!!

जो दर्ज किताबी वरको में 
वो दर्द जुबा पर लाता हूँ 
फिर आजादी की बेला पर 
इतिहास आज दोहराता हूँ 

कहते हैं सब कुछ थम जाता 
पर काल कभी ना सोता हैं 
प्रतिदिन प्रतिपल का वो साक्षी 
इतिहास का प्रहरी होता हैं 

इक वो भी दौर जिया हमने 
इतिहास हमारा विस्मृत था 
चरवाहे, ढोंगी, सन्यासी
कहकर,जग हमसे परचित था 
सैन्धव में उदित हुआ सूरज 
पश्चिम की आखें चौंध गयी 
वह वृहत सभ्यता का स्तर
मानो इक चपला कौंध गयी 

यह कहते गर्व मुझे होता 
हम शिवलिंग पूजक तब भी थे 
हम मात्रदेवि के अनुयायी 
हम अन्नोत्पादक तब भी थे 

जब नग्न फिरा करता पश्चिम 
हमने वेदों की रचना की 
राजन्य,पुरोहित, सभा-समिति औ',
सेनानी की कल्पना की 
 थे वर्ण चार पर भेदभाव का 
लेश-मात्र स्थान नही 
व्याकरण, छंद, ज्योतिष रचते 
पर कही तनिक अभिमान नही 

मैडम क्यूरी पर इठलाते 
नादानों को क्या दिखलाऊ ?
लोंपा,मुद्रा, घोषा, कांक्षा  
अगणित विदुषी क्या बतलाऊ 

फिर वह प्रकाश उपजा जिसकी 
आभा में शांति  छटा बिखरी 
दुःख से मुक्ति का मार्ग मिला 
सुखदायी मानवता निखरी 

वह पल जिसकी स्मृति से ही 
नयनो  से सहज अश्रु बहते 
माँ से चिपका राहुल अबोध 
पर गौतम तनिक नही डिगते 
हिंसा तो पशुता की प्रतीक 
निर्ग्रन्थ यही हैं बतलाते 
बस पंचमहाव्रत ही उपाय 
कैवल्य मार्ग जब समझाते....

हैं हास अगर जीवनदायी
उपहास विनाश करा देता 
कुछ द्रुपदसुता जैसा विनोद 
फिर नन्दवंश दुहरा देता 

जब घनानन्द की राजसभा में 
विष्णु गुप्त की शिखा खुली,,
 जब पुनः शिखा तो बंधी किन्तु, 
वह राजसभा फिर नहीं खुली 
फिर वह भी दिन था आ पहुंचा 
इतिहास गर्व जिस पर करता 
हम क्यूँ नेतृत्व  करे जग का 
इतिहास प्रमाण दिया करता  

रणघोष ध्वनि जब शांत हुई 
इक शासक कलिंग विजेता था 
चहुँओर पताका फहराती 
जिसका वह स्वयं प्रणेता था 
 जब  युद्ध  साक्षी दिनकर  भी 
थक  कर अपने घर लौट गया 
वह शासक दंभपान करने 
तब समर भूमि की ओर गया 

घनघोर अँधेरे में दिखती थी 
अगणित नीली-पीली आखें 
आपस में लड़ते, गुर्राते 
गीदड़ो-भेडियो की साँसे 

दूसरा कदम बस रखना था 
वह फिसला दूर गिरा जाकर 
तन भीग गया उसका पूरा 
फिर उठा एक आश्रय पाकर 

ज्यों ही मशाल पकड़ी उसने 
और अन्धकार ज्यों दूर हुआ
टप-टप तन से चू रहा लहू 
कातर  सा निर्मम शूर हुआ 
ये हाय विजय  कैसी मेरी? 
कोटियो शवों के बीच खड़ा 
शोणित की बहती सरिता में 
सिर कही पड़े, धड़ कही पड़ा 

ऐ मेरे सैनिक उठो आज 
क्यों विजय-हर्ष से वंचित हो? 
ऐ प्रतिपक्षी  शव  शोकमुक्त 
क्यों  नही हार से चिंतित हो?

जिस कलिंग विजय पर जान गयी 
अब क्यों तटस्थ तुम उससे हो?
कब शांत रहे  उपक्रम से तुम 
अब क्यों उसके निर्णय से हो?

हे ईश्वर इस कल्पित मद ने 
यह क्या अनर्थ करवा डाला 
किस भय ने  विजय आवरण में 
झूठा पुरुषार्थ करा डाला 

पर क्षमाप्रार्थी हूँ जग का 
यह प्रायश्चित करता हूँ मैं 
यह अंतिम  भेरीघोष कलिंग 
अब धम्मघोष चुनता हूँ मैं 
हर युद्ध विजय है तत्वहीन  
अब धम्म विजय करना होगा 
सब प्रजा  पुत्रवत होती है  ,
ऐसा  निश्चय करना होगा 

इतिहास जानता है इसको 
कि कलिंग युद्ध अंतिम न रहा 
वह युग फिर कभी नही आया 
जब यह मानव रक्तिम न रहा 

कलिंग जीतने की लिप्सा 
तब से अब तक बढ़ती जाती 
कोई अशोक फिर पिघलेगा 
यह प्रायिकता घटती जाती 

जब ज्ञानचक्षु खुलते "सागर "
सब भेदभाव मिट जाता है 
क्या अपना और पराया क्या 
सारा दुराव मिट जाता है 
पश्चिम की बढ़ती आंधी पर 
पूरब का दीप जलाता हूँ 
फिर आजादी की बेला पर 
इतिहास आज दुहराता हूँ.
फिर आजादी की बेला पर
इतिहास आज दुहराता हूँ...